जल

शास्त्रों अनुसार हमारा शरीर पंच तत्वों से निर्मित है तथा पांचों तत्वों के एक – एक देवता हैं। यह पांचों तत्व

जल तत्व – जल तत्व के देवता शिवजी है, जल तत्व के द्वारा ही हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है साथ ही मन की शांति भी इसी तत्व से मिलती है.

अग्नि तत्व – अग्नि तत्व के देवता सूर्य देव बताये गए है. अग्नि से हमारा स्वास्थ्य संबंधित होता है. निरोगी काया के लिए भगवान सूर्य की स्थापना करें।

आकाश तत्व – आकाश तत्व के स्वामी विष्णु भगवान है आकाश तत्व प्रेम से संबंध रखता है.

पृथ्वी तत्व – पृथ्वी तत्व के देवता गणेश जी है, जींदगी में स्थयित्व व् विघ्न नाश के लिए गणेशजी की उपासना करे.

वायु तत्व – वायु तत्व माता पार्वती के अधीन है, धन सम्पदा के लिए माँ पार्वती की पूजा करे

जल का जीवन में महत्व: वेदों में जल जल जीवन का पालना है। प्राणवायु ऑक्सीजन जीव की विविध क्रियाओं को क्रियाशील बनाते हुए उसे जीवन प्रदान करती है। जीवन की इन विविध क्रियाओं का आधार जल है। इसलिए जल को जीवन का आधार कहते हैं। जल जीव की आन्तरिक रचना ही नहीं बल्कि वाह्य व्यवस्थाओं के लिए भी अत्यधिक आवश्यक है। यही कारण है कि विश्व के अधिकांश मानव समूहों का विकास जल स्रोत्रों के आसपास ही हुआ है।

श्रीशिवमहापुराण उमासंहिता अध्याय के अनुसार भगवान् शंकर माता पार्वति से कहते हैं कि 'आकाश से वायु उत्पन्न होता है, वायु से तेज उत्पन्न होता है, तेज से जल उत्पन्न होता है और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। ये क्रमशः पृथ्वी आदि पंचभूत एक दूसरे में पूर्व-पूर्व के क्रम से विलीन होते हैं। जल को हम युगों से पूजनीय मानते है। वैदिक सभ्यता पूर्व में मुख्य नदियों के किनारों पर ही विकसित हुई। जो जल के वृहत महत्व को दर्शाता है। हिन्दू धर्म में हर व्यक्ति के जन्म से मृत्युपर्यन्त, सभी संस्कारों में जल का विशेष महत्व है। स्नान करते समय निम्न मन्त्र का जाप किया जाता है।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिम् कुरु

जिसके अन्तर्गत भारतवर्ष की मुख्य नदियों का स्मरण किया जाता है। मधुच्छन्दस के तीसरे सूक्त की तीन ऋचाऐं, जिनमें सरस्वती का आवाहन किया गया है।

आचमनीयं जलं समर्पयामि
(आचमन के लिए जल समर्पित करें)
किसी भी पुण्य कार्य करने से पहले संकल्प लिया जाता है और संकल्प बिना जल के नहीं किया जा सकता। सोलह संस्कारों में मुख्यतया जल से ही सभी कार्य सम्पन्न होते हैं। नामकरण संस्कार सम्पन्न होने के बाद निष्क्रमण संस्कार के क्रम में सर्वप्रथम दिशाओं तथा दिग्देवता की स्थापना की जाती है। इस हेतु किसी पवित्र पात्र में जल लेकर उसमें दिगीशादि देवों पर अक्षत छोड़ते हुए निम्न मन्त्र द्वारा उनका आवाहन एवं प्रतिष्ठापन करते हैं।

ॐ भूर्भुवः स्वः जले दिगीषदिदेवा गगनपर्यन्ता आगच्छन्तु तिष्ठन्तु सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु ।

जब कर्णवेध संस्कार किया जाता है तो कलश में जल लेकर उसमें देवों को निम्न मन्त्र द्वारा आवाहित किया जाता है और अक्षत छोड़े जाते हैं।

ॐ भूर्भुवः स्वः कलषे ब्रह्मवरूणरूद्रसहिता आदित्यादि नवग्रहाः जले केषवादिदेवाः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।
जब कर्णवेध संस्कार किया जाता है तो कलश में जल लेकर उसमें देवों को निम्न मन्त्र द्वारा आवाहित किया जाता है और अक्षत छोड़े जाते हैं।

ॐ भूर्भुवः स्वः कलषे ब्रह्मवरूणरूद्रसहिता आदित्यादि नवग्रहाः जले केषवादिदेवाः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु।
प्रत्येक विधि विधान में प्रणीता में जल लेकर कुश द्वारा जल छिड़क कर निम्न मन्त्र द्वारा मार्जन किया जाता है।

ॐ आपः षिवाः षिवतमाः शान्तः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।
गृहस्थ जीवन के लिए पालनीय नियमों में जल को श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। कहा गया है कि जल में अपनी परछाई न देखें। पारस्करगृह्य सूत्र के अनुसार

वैदिक परम्परा से वर्तमान समय तक जल का महत्व स्पष्ट है। वर्तमान में भी कथाज्ञान यज्ञ (यथा श्रीमद्भागवत महापुराण, श्रीशिवमहापुराण आदि) में सर्वप्रथम कलश यात्रा का प्रावधान है और कथा पाण्डाल में जलयुक्त कलश पूर्णावधि तक रखा जाता है। पूर्णाहुति के उपरान्त उस जल को घरों में छिड़का जाता है। जल की सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करने की शक्ति के कारण ही जल की पवित्रता और बढ़ जाती है। जिससे जल की महत्वता स्वयं सिद्ध होती हैं

अपनी इस भूधरा में जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, लेकिन इसका अधिकांश भाग ( 92%) लवण जल है। जो जीवजगत के लिए अनुपयोगी है। उपलब्ध अलवण जल में से भी मानव उपयोग के लिए उपलब्ध जल अत्यधिक सीमित है। मानव के लिए सुलभ सीमित जल को भी वर्तमान में उपभोक्ता वादी समाज व्यवस्था ने अपने शहरीकरण, औद्योगिकीकरण व जनसंख्या वृद्धि से इसको संदूषित ही नहीं बल्कि प्रदूषित श्रेणी में पहुचा दिया है। मानव की जीवन रेखा कहीं जाने वाली नदियाँ प्रदूषित हो चुकी हैं। मानव निर्मित तज्य पदार्थों और उद्योगों से निकले वाले दूषित तरल ने नदियों और जल स्रोतों को दूषित कर दिया है। जल स्रोत सूखने लगे हैं, और आज जल स्रोतों का पुर्नजनन ही अन्तिम विकल्प है। जिससे भू धरा में पर्याप्त जल जीव तन्त्र को बनाए रखने के लिए उपलब्ध हो सकता है।


ऋग्वेद
यह जानकर सचमुच आश्चर्य होता है कि सभ्यता के आरंभ में ही मनुष्य ने पानी के महत्त्व और महत्ता को समझ लिया था। खाना पकाने, व्यक्तिगत सफ़ाई और स्वच्छता के अलावा, खेती और फसलों की सिंचाई के लिए पानी महत्वपूर्ण था। उस प्रारंभिक युग में, पानी परिवहन का एक प्रमुख साधन था; आगे की प्रगति और विकास के साथ पानी फिर से भोजन के साथ-साथ व्यापार और वाणिज्य का एक अमूल्य स्रोत बन गया।

प्राचीन हिंदू मान्यताओं के अनुसार, ब्रह्मांड, ब्रह्मांडीय दुनिया में पांच मूल तत्व शामिल हैं:

क्षिति (पृथ्वी),
आपा (पानी),
तेज (प्रकाश/गर्मी),
मारुत (वायु) और
व्योम (ईथर/अंतरिक्ष)।
ऋग्वेद के अनुसार, इस ग्रह पर सारा जीवन अपः (जल) से विकसित हुआ है। पानी को आमतौर पर इस पृथ्वी पर सभी जीवित प्राणियों की मूलभूत आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया जाता है। वैदिक साहित्य में पानी के औषधीय गुणों, पानी के उपयोग, पानी के संरक्षण और संरक्षण के महत्व के बारे में प्रचुर उल्लेख हैं। शुद्ध जल को इसके निम्नलिखित गुणों के कारण 'दिव्यजल' कहा जाता है: शीतम (स्पर्श करने के लिए ठंडा), शुचि (स्वच्छ), शिवम (उपयोगी खनिजों और उपयोगी तत्वों के अंश से भरपूर), इष्टम (पारदर्शी), विमलम लहु षड्गुणम (इसका अम्ल) -बेस बैलेंस सामान्य सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए)।

जल संरक्षण
सिंधु घाटी सभ्यता, जो लगभग 5,000 साल पहले सिंधु नदी के किनारे और पश्चिमी और उत्तरी भारत के अन्य हिस्सों में विकसित हुई थी, दुनिया में सबसे परिष्कृत शहरी जल आपूर्ति और सीवेज प्रणालियों में से एक थी। यह तथ्य कि यह सभ्यता स्वच्छता और स्वच्छता से अच्छी तरह परिचित थी, मोहनजोदड़ो और हड़प्पा दोनों के खंडहरों की सड़कों के नीचे बहने वाली ढकी हुई नालियों से स्पष्ट है। एक और उत्कृष्ट उदाहरण गुजरात में सुनियोजित शहर धोलावीरा है।

यद्यपि प्रकृति ने भारतीय भूभाग को बड़ी संख्या में बारहमासी नदियों, अधिकांश क्षेत्रों में असीमित वर्षा का आशीर्वाद दिया है, फिर भी प्राचीन ऋषियों, विद्वानों और विद्वानों की व्यावहारिकता और विवेक ने उन्हें जल संरक्षण के मुद्दे पर विचार करने के लिए प्रेरित किया।


जल शोधन
वराहमिहिर द्वारा लिखित और संकलित बृहत्-संहिता में खोदे गए कुओं में भूजल के शुद्धिकरण का विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने सुझाव दिया कि पानी में अंजन, भद्रमुस्थ, खस (वेटिवर), आंवला (एम्ब्लिका ऑफिसिनैलिस, करौदा) और निर्मली (भुई आंवला / कटका) नामक जड़ी-बूटियों के पाउडर का मिश्रण बनाया जाए, जिसे मापी गई मात्रा में पानी में मिलाया जाए। शुद्धिकरण के लिए कुओं में. भारतीय चिकित्सक सुश्रुत के प्रसिद्ध ग्रंथ में जल शुद्धिकरण के लिए विस्तृत व्यावहारिक मार्गदर्शन दिया गया है। सुश्रुत ने खुलासा किया कि गंदे पानी को जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले पदार्थों से शुद्ध किया जा सकता है; निर्मली के बीज, कमल की जड़ें (कमल/पानी लिली), शैवाल के प्रकंद और तीन पत्थर, गोमेद (गार्नेट) मोती (मोती) स्फटिक (क्वार्ट्ज क्रिस्टल) का उपयोग किया गया था।

जल की निर्मल महिमा, पुराणों में वर्णित है

पांच तत्वों में से एक है जल। पुराणों में वर्णित है जल की महिमा का महत्व। शुद्ध जल और पवित्र जल में फर्क होता है। जीवन में दोनों का ही महत्व है। आओ जानते हैं कि पुराणों में जल का क्या महत्व है।


जल को हिंदू धर्म में पवित्र करने वाला माना गया है। शुद्ध जल से जहां हम कई तरह के रोग से बच जाते हैं वहीं पवित्र जल से हमारा तन और मन निर्मल हो जाता है।


जल से ही जड़ जगत की उत्पत्ति हुई है। हमारे शरीर में लगभग 70 प्रतिशत जल विद्यमान है उसी तरह जिस तरह की धरती पर जल विद्यमान है। जितने भी तरल तत्व जो शरीर और इस धरती में बह रहे हैं वो सब जल तत्व ही है। चाहे वो पानी हो, खून हो, वसा हो, शरीर में बनने वाले सभी तरह के रस और एंजाइम।

आयुर्वेद के अनुसार सबसे अच्छा पानी बारिश का होता है। उसके बाद ग्लेशियर से निकलने वाली नदियों का, फिर तालाब का पानी, फिर बोरिंग का और पांचवां पानी कुएं या कुंडी का। यदि पानी खराब लगे तो उबालकर पीएं।

6. जल को पवित्र करने की प्रक्रिया कई तरह की होती है। प्रमुख रूप से जल को पवित्र करने के तीन तरीके हैं- पहला भाव से, दूसरा मंत्रों से और तीसरा तांबे और तुलसी से। भाव से अर्थात भावना से उसे पवित्र करना। जैसे हम जल के प्रति अच्छी भावना रखने हैं और उसे देव समझकर सबसे पहले उसे देवताओं को अर्पित करके के बाद फिर उसे ग्रहण करते हैं तो उसके गुण और धर्म में पवित्रता शामिल हो जाती है। इसी तरह मंत्र से अर्थात किसी विशेष मंत्र से हम जल को पवित्र करते हैं। तीसरा तरीका है कि हम शुद्ध जल को तांबे के किसी पात्र में भरकर रखें और उसमें तुलसी के कुछ पत्ते डाल दें तो यह जल पूर्ण रूप से पवित्र हो जाएगा।

पवित्र जल छिड़ककर कर लोगों को पवित्र किए जाने की परंपरा आपको सभी धर्मों में मिल जाएगी। हिन्दू धर्म में आरती या पूजा के बाद सभी पर पवित्र जल छिड़का जाता है जो शांति प्रदान करने वाला होता है।

आचमन करते वक्त भी पवित्र जल का महत्व माना गया है। यह जल तांबे के लोटे वाला होता है। आचमन करते वक्त इसे ग्रहण किया जाता है जिससे मन, मस्तिष्क और हृदय निर्मल होता है। इस जल को बहुत ही कम मात्रा में ग्रहण किया जाता है जो बस हृदय तक ही पहुंचता है।

उचित तरीके और विधि से पवित्र जल को ग्रहण किया जाए तो इससे कुंठित मन को निर्मल बनाने में सहायता मिलती है। मन के निर्मल होने को ही पापों का धुलना माना गया है।
जल से ही रोग होते हैं और जल से ही व्यक्ति निरोगी बनता है। जल से ही कई तरह के स्नान के अलावा योग में कुंजल क्रिया, शंखप्रक्षालन और वमन किया होती है। अत: जल का बहुत महत्व होता है।

यह माना जाता है कि पावन पवित्र नदी के जल में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं। गंगा,नर्मदा,कावेरी,गोदावरी अन्य नदी के जल को सबसे पवित्र जल माना जाता है। इसके जल को प्रत्येक हिंदू अपने घर में रखता है। गंगा नदी दुनिया की एकमात्र नदी है जिसका जल कभी सड़ता नहीं है। वेद, पुराण, रामायण महाभारत सब धार्मिक ग्रंथों में गंगा,नर्मदा की महिमा का वर्णन है।

हिन्दू धर्म में बिंदु सरोवर, नारायण सरोवर, पम्पा सरोवर, पुष्‍कर झील और मानसरोवर के जल को पवित्र माना जाता है। कहते हैं कि इस जल से स्नान करने और इसको ग्रहण करने से सभी तरह के पाप मिट जाते हैं और व्यक्ति का मन निर्मिल हो जाता है।