दुर्गा दास जीवन परिचय
कई बार सामान्य से परिवेश में जन्म लेने वाला बालक समाज और दुनियाॅं के समक्ष आदर्श प्रस्तुत कर जाता है। वह ऐसा कार्यक्रम जाता है जिसे युगों तक मील के पत्थर की संज्ञा दी जाती है, और वह व्यक्ति कालजेयी हो जाता है। ऐसे ही एक बालक का जन्म 14 जून 1974 को माता लक्ष्मी बाई और पिता श्रवण चढोकार के यहाॅं मध्यप्रदेश के जिला बैतूल में हुआ नाम रखा गया दुर्गादास बालावस्था से ही इस बालक में कुछ अनौखी बातें देखने में आती थी यह हम उम्र बालकों की तरह उत्साहित एवं चपल नहीं था अपितु बड़े बुजुर्गों की तरह बहुत गंभीर रहता था। यह बालक अपनी किसी भी बात या उपलब्धि से प्रसन्न नहीं होता था, जबकि इसके विपरीत माता-पिता, भाई-दोस्त यहाॅं तक कि शिक्षक भी उसकी उपलब्धियों एवं उन्नति से प्रसन्न होते थे लेकिन दुर्गादास नहीं। उसे हमेशा लगता कि वह यह सब करने के लिए नहीं जन्मा है। हालांकि उसे क्या करना है, यह भी उसे स्पष्ट समझ नहीं आता था। उसका एक ही साथी था, अजय दास जो उसी की भांति शान्त और गुमसुम रहता था। प्रारंभिक से हायर सेकेन्ड्री तक की पढ़ाई जन्म स्थान बैतूल में ही पूरी की इसके पश्चात् आगे की पढ़ाई के लिए दुर्गादास भोपाल आ गया, लेकिन व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत जैसे-जैसे उम्र और शिक्षा बढ़ती गई सोच और गहरी होती चली गई। ग्रेजुएशन पूरा हुआ लेकिन आजीविका के लिए शिक्षा के अनुरूप नौकरी ढॅूंढने के बजाय दुर्गादास वीडियों संपादन के प्रशिक्षण की ओर मुड़ गए। उन्होंने प्रशिक्षण के दौरान और उसके पश्चात् कई कार्यक्रमों और लघु फिल्मों का सम्पादन कर ख्याति अर्जित की लेकिन मनःस्थिति यथावत् रही। मन लगातार इस मंथन में लगा रहता कि आखिर क्या करूं जिससे मन शांत हो जाए।
दुर्गादास को लगा कि शायद धर्म की ओर मुड़ जाने से चित्त और दिशा निश्चिंत हो जाए। इस विचार सेे एक पूर्णमासी को दुर्गादास नर्मदा स्नान के लिए नर्मदापुरम् पहुॅंच गए, स्नान के बाद चमत्कारिक रूप से चित्त शान्त हो गया। नयनों में प्रकाश अचानक बढ़ गया। लगने लगा कि शायद अब दिशा भी मिल जाएगी।
यह वर्ष 1998 का था देव योग से नर्मदापुरम् जो उस समय होशंगाबाद था इस पवित्र नगरी में दुर्गादास का संपर्क श्री श्री 1008 महामण्डलेश्वर जगन्नाथ दास से हुआ। मानो सम्पूर्ण गति को विराम मिल गया मानों अब दशा और दिशा दोनों का संविलय हो रहा था श्री श्री 1008 महामण्डलेश्वर जगन्नाथ दास जी ने दुर्गादास के सिर पर हाथ रखा तो दुर्गादास की संपूर्ण देह झंकृत हो गई, रोम रोम रोमांचित हो गया उन्होंने दुर्गादास से स्नेहपूर्वक कहा प्रतिपूर्णिमा नर्मदा स्नान को आया करो। जीवन में जब भी समय मिले नर्मदा परिकक्रमा जरूर करना। इस समय से लेकर आज तक दुर्गादास निरन्तर हर पूर्णमासी पर नर्मदा स्नान को जाते हैं। यहीं एक और संयोग हुआ बर्सों से पिछड़ा सहपाठी जो बैतूल में दुर्गादास का मित्र था अजय दास वह भी इसी आश्रम में रहता था बचपन के अजयदास और आज के अजयदास में जमीन आसमान का फर्क था अब वेशभूषा, ज्ञान, अध्ययन सब कुछ ऋषियों जैसा था। पढ़ने का शौक तो अजयदास को बचपन से था। इस अन्तराल में वेद पुराणों का अध्ययन कर अजयदास ऋषि अजयदास हो गए थे। किन्तु अचानक बचपन के सखा दुर्गादास को देखकर सारी मर्यादाएॅं त्याग कर अजयदास ने दुर्गादास को ह्रदय से लगा लिया। कुशलक्षेम के पश्चात् कार्यों और कार्यक्षेत्र की बात चली दुर्गादास ने अपनी मनःस्थिति ऋषि अजयदास को बताई तो उन्होंने मित्रवत् दुर्गादास को समझाया समय आने पर सब समझ में आ जाएगा यहाॅं आए हो तो इसमें भी भगवान की कोई इच्छा होगी। इस मुलाकात के बाद दुर्गादास हर पूर्णमासी को नर्मदा स्नान को जाते आश्रम भी वह नियमित जाते लेकिन अजयदास वहाॅंे नहीं मिलते पूछने पर ज्ञात होता कि वह भ्रमण पर हैं। एक बार गुरू जी श्री श्री 1008 महामण्डलेश्वर जगन्नाथ जी से ऋषि अजयदास के बारे में पूछा तो उन्होंने जबाव दिया अजय लक्ष्य की खोज में गया है। मैंने जिज्ञासा वश पूछा तो क्या अब बो कभी नहीं मिलेंगे। ''जीवन यात्रा लम्बी है समय आएगा तो भेंट हो जाएगी''। समय अपनी गति से चलता रहा दुर्गादास निरन्तर माॅं नर्मदा के स्नान के लिए जाते रहे। एक बार नर्मदा स्नान को पहुॅंचे तो गुरूदेव के ब्रम्हलीन होने का दुखद समाचार मिला दुर्गादास गुरूजी के अन्तिम दर्शन के लिए पहुॅंचे और जब नमन किया तो मानों गुरूजी ने पूछ लिया ''क्या नर्मदा परिक्रमा की बात भूल गए''। दुर्गादास यहीं से निरन्तर प्रयास करते रहे लेकिन परिक्रमा का समय 2014 में देवउठनी ग्यारस के दिन शिव की नगरी औंकारेश्वर से प्रारंभ हुई। यात्रा में अभी कुछ दिन ही हुए थे। पग थकने लगे धैर्य साथ छोड़ने लगा, तब अचानक आकशवाणी सी हुई ''बच्चू बस इतने से घबरा गया'' दुर्गादास चैतन्य हो गए, यह आवाज गुरूदेव श्री श्री 1008 महामण्डलेश्वर जगन्नाथ जी की थी। वह अक्सर इस वाक्य का प्रयोग किया करते थे। वाणी में ऐसी शक्ति की पूरा शरीर उर्जा से भर जाता था। दुर्गादास एक शिला पर बैठे थे वह तुरन्त नई उर्जा और उत्साह से उठ खड़े हुए। पास ही बैठे एक अधेड़ ने दुर्गादास में वह चमत्कारिक परिवर्तन स्पष्ट देखा। और उत्सुकतावश पूछ लिया ''अचानक यह शक्ति, यह उत्साह कहाॅं से आया'' दुर्गादास सहज भाव से बोले गुरूदेव की वाणी से। गुरू हमेशा अपने शिष्यों से जुडे रहते हैं। कभी अपने शिष्यों को हताश नहीं होने देते, भटकने नहीं देते। उन्हीं गुरूदेव की आवाज ने शक्ति दी। उस अधेड़ व्यक्ति ने गहरी साॅंस लेकर कहा हमें तो कोई शिष्य भी नहीं बनाता। क्यों? क्यों आपको कोई शिष्य नहीं बनाता? अधेड़ बोला ''हम किन्नर हैं न'' दुर्गादास ने आश्चर्य से उस व्यक्ति को देखा जो सामान्यतः किन्नर नहीं लग रहा था।
दुर्गादास लेकिन आप तो हमारी तरह इस नर्मदा परिक्रमा में शामिल हैं। ''हाॅं मैं इसी मान्यता के साथ यह यात्रा कर रहा हूॅं कि मय्या मुझे अगला जन्म यूॅं आधा अधूरा न दें'' दुर्गादास एक टक उस अधेड़ को देखते रहे, फिर बोले में बहुत ज्ञानी तो नहीं हूॅं, लेकिन इतना जातना हूॅं कि सनातन धर्म में ब्रम्हचर्य की बड़ी महत्ता है, और आप लोग तो प्राकृतिक रूप से ब्रम्हचारी है। फिर अपने अस्तित्व से इतना अलगाव क्यों? यह आप समझते हैं। लेकिन सभ्य समाज तो नहीं समझता। जन्म देने के बाद यदि समझता तो जन्म लेते ही माता-पिता घरवाले हमें क्यों त्याग देते। कोई हमारे साथ उठता बैठता क्यों नहीं? क्यों हम लोगों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता?
चलते-चलते साॅंझ घिर आई थी। यात्रा के साथियों न (तेली) भटयाण पर रात्रि विश्राम के लिए डेरा डाला। दुर्गादास के मन में अधेड़े के प्रश्न गूॅंजते रहे वह लगातार सोचते रहे कि जिस अधूरेपन की वह अधेड़ बात कर रहे थे। उसके लिए वो तो जिम्मेदार नहीं? फिर उसका दोष उन पर क्यों? ऐसे ही प्रश्नों में डूबे न जाने कब दुर्गादास की आॅंख लग गई प्रातः उठे तो वह किन्नर उन्हें कहीं नहीं दिखा। स्नान आदि से निवृत्त होकर आगे बढ़े चाल तेज हो गई थी। शायद वो आगे निकल गए हों उसके मन में और न जाने क्या-क्या हो? अगर वह साथ रहते तो शायद मैं अपने सम्मानजनक व्यवहार से उनके अंतर मन को थोड़ा शान्त कर पाता। दिन भर दूनी रफ्तार से चलने के बाद भी वह किन्नर दोबारा कहीं नहीं दिखा मन विचिलित हो गया। आखिर इस समाज के साथ ऐसा क्यों?
यात्रा चलती रही, किन्नरों के प्रति वैचारिक मंथन चलता रहा और साथ-साथ यह विश्वास भी बढ़ता रहा कि शायद मेरा जन्म इसी उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए हुआ है कि मैं इन उप-देव तुल्य लोगों के लिए कुछ कर सकूं। यात्रा का अगला पड़ाव महेश्वर में होना था। महेश्वर में रात्रि विश्राम के बाद प्रातः स्नान के समय घाट पर अचानक ऋषि अजयदास से पुनः भेंट हो गई, वार्तालाप के दौरान स्पष्ट हुआ कि ऋषि अजयदास नर्मदा स्नान के लिए आए थे।
जब दुर्गादास ने बताया कि वह परिक्रमा यात्रा पर हैं, तो अजयदास बहुत प्रसन्न हुए, लेकिन दुर्गादास की आॅंखों से मन का विचलन स्पष्ट दिखाई दे रहा था। ऋषि अजयदास ने प्रश्न किया ''इतनी आलौकि यात्रा के बाद भी मन शान्त नहीं है।'' मैं देख रहा हूॅं कि गुरूजी की शिक्षा के बावजूद तुम न जाने क्यों शान्त नहीं होते। क्या बात है? दुर्गादास ने उतावलेपन से उत्तर दिया बात कोई व्यक्तिगत नहीं है। इस यात्रा में एक किन्नर से मेरी मुलाकात हुई जो इस कामना के साथ यह यात्रा कर रहा था कि इस यात्रा के पुण्य फल के रूप में उसे ऐसा अधूरा जन्म फिर प्राप्त न हो। उसके जीवन का दर्द और समाज में किन्नर वर्ग से उपेक्षित व्यवहार से आहत हूॅं। दूसरी कौतुहल की बात यह है कि दूसरे दिन वह किन्नर आश्चर्यजनक ढंग से खो गया मानों मुझे सिर्फ यही बताने के लिए आया हो। तभी से मेरे मन में किन्नरों और किन्नरों के समाज के लिए कुछ ऐसा करने की इच्छा है, जिससे यह वर्ग समाज की मुख्य धारा से जुड़ सके समाज में इनका आदर-सम्मान हो। दुर्गादास ने यह कहकर अपनी बात समाप्त की। अजय दास ने दुर्गादास से पूछा क्या ? इस परिक्रमा यात्रा में सिर्फ यह एक बात है जिसने तुम्हारे मन को प्रभावित किया ह | ऐसा नहीं है , और भी कुछ है जो यात्रा के दौरान मुझे दिखा | दुर्गादास ने कहा अजय दास ने जिज्ञासा से पूछा वह क्या है ? परिक्रमा के मार्ग में मैंने देखा कई स्थान पर मां नर्मदा बहुत सक्रिय हो गई है लोग अवैध खनन से नर्मदा को क्षति पहुंचा रहे हैं , मुझे लगता है कि नर्मदा की सुरक्षा के लिए नर्मदा के किनारे वृक्षारोपण किया जाना चाहिए | जिससे मां नर्मदा के किनारो को सुरक्षा की जा सके|
अजयदास ने शान्ति से सारी बात सुनी उनके चहरे पर एक मंद-मंद मुस्कान थी। उन्होंने सिर्फ इतना कहा-परिक्रमा पूरी कर उज्जैन आ जाओ वहाॅं आश्रम के लिए जमीन ली है। आज कल वहीं निवास है और उठकर एक दिशा में चल दिए।
नर्मदा परिक्रमा के सम्पन्न होने के पश्चात् दुर्गादास उज्जैन पहुॅंचे। वहाॅं जाकर उन्हें ज्ञात हुआ कि ऋषि अजयदास भी किन्नरों की दशा सुधारने के लिए एक विशाल योजना पर कार्य कर रहे हैं वह देश के कई हिस्सों के किन्नरों से भेंट कर अपने विचार उन किन्नरों के समक्ष रख चुके हैं। किन्तु कोई विशेष सहमति और सफलता उनके हाथ नहीं लगी थी।
अब दुर्गादास को गुरूदेव की बात याद आई ''जीवन यात्रा लम्बी है समय आएगा तो भेंट हो जाएगी।''
साथ ही उस अधेड़ किन्नर का मिलना और अचानक अदृष्य हो जाने का रहस्य भी समझ में आ गया। निश्चित ही वह गुरूदेव थे जो उद्देश्य की और जाने का मार्ग दिखाकर अदृष्य हो गए थे। दुर्गादास ने ऋषि अजयदास को इस अभियान को गति देने के कुछ सुझाव दिए। ऋषि अजयदास को लगा शायद यहीं कमियाॅं थी जिस वजह से कार्य मूर्तरूप में परिणित नहीं हो रहा था। यहाॅं से दोनों ने साथ मिलकर इस अभियान को पूरा करने के लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों की यात्राएॅं कीं। कई किन्नर गुरूओं से चर्चा कर योजना के पक्ष में उन्हें एकमत किया फिर सरकार को किन्नरों के पौराणिक महत्व को समझाते हुए किन्नर अखाड़े का प्रस्ताव रखा जिसे काफी विरोध के बाद स्वीकृति मिली और अंततः 2015 में किन्नर अखाड़े की स्थापना हुई जिसे कई सम्मानीय अखाड़ों द्वारा मान्यता प्राप्त हुई और 2016 के कुंभ में पहली बार इस अखाड़े की भागीदारी हुई। स्वयं ऋषि अजयदास स्वीकार करते हैं कि यदि दुर्गादास की सूझबूझ और रणनीति न होती तो किन्नर अखाडे की गौरवशाली स्थाापना संभव नहीं थी। इसी लिए ऋषि अजयदास इस महान कार्य की जिम्मेदारी दुर्गादास को सौंपकर स्वयं गृहस्थ जीवन की ओर प्रस्थान कर गए। श्री दुर्गादास किन्नर अखाड़े की उन्नति और किन्नर समाज के कल्याण की दिशा में निरन्तर कार्यरत् हैं और किन्नर अखाड़े के संस्थापक की भूमिका निभा रहे हैं।
किसे पता था कि एक सामान्य मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे दुर्गादास इतने महत्वपूर्ण कार्य के कार्यवाहक होंगे। किन्नर अखाड़े की स्थापना के बाद, उज्जैन, कुंभ, प्रयागराज कुंभ, हरिद्वार कुंभ सफलतापूर्वक करने के साथ ही ,लेकिन दुर्गा दास का प्रयास यात्रा जारी है , वह एक उद्देश्य (किन्नर अखाड़ा स्थापना) की पूर्ति के बाद अपने दूसरे अभियान की सफलता नर्मदा के किनारे पर वृक्षारोपण के लिए निरंतर कार्यरत हूं |
प्रयागराज और नासिक कुंभ की तैयारियाॅं भी जारी हैं।