किन्नर समाज उत्थान

जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान होता है। कुछ ऐसे ही लोगों का दर्द शायद मेरे द्वारा ईश्वरीय प्रेरणा से बयाँ होना था। दूसरों का दर्द समझना और उस दर्द को सहानुभूतिपूर्वक बाँटना मानवता की पहली निशानी है। वैष्णव जन तो तैने कहिए जो पीर पराई जाने रे..। असली वैष्णव वह है जो दूसरे के दुःख को जानता है। एक-दूसरे के दुःख को समझना, बाँटना व सहयोग करना प्रत्येक धरती वासी का कर्तव्य है। क्योंकि वेद कहते हैं माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः । यह भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ अर्थात् सारी धरती के प्राणी पृथ्वी की सन्तानें हैं। इस नाते से सब भाई-बंधु हुए, सो सबको एक-दूसरे का ध्यान रखना चाहिए। यह पुस्तक एक ऐसे पीड़ित वर्ग के दर्द को शब्दों में प्रकट करती चीख पुकार है, जो सदियों से हमारे बीच गुलामी और उपहास की जिन्दगी जी रहे हैं। उस वर्ग की जबान है परन्तु उस पर सदियों की दासता की जमीं धूल भारी पड़ रही है। वह एकजुट संगठन शक्ति का स्वामी है, परन्तु शक्ति प्रदर्शन की उसकी वह क्षमता उसकी असाक्षरता के कारण बर्फ की तरह जमी पड़ी है। इस दुःख भरी कहानी के उस पात्र का नाम है ' हिजड़ा'। जिसे छक्का या किन्नर कहकर भी अपमानित किया जाता है।

मानवतावादी सोच की इस इक्किसवी सदी में जहाँ कुत्ते - बिल्ली लेकर वन्यप्राणी, वनस्पति, वन, पर्वत, पर्यावरण, जल इत्यादि सभी के प्रति मनुष्य ने मानवीयता रूपी अपनी आवाज उठाई है, वहीं उन्हीं के बीच सदियों से समाज की उपेक्षा, प्रताड़ना, बेइज्जती को सहन करता किन्नर समाज का एक बड़ा वर्ग सारी दुनिया की नजरों से ओझल दिखाई पड़ रहा है। आखिर प्रश्न उठता है कि हर बार उसी वर्ग की पीड़ा व हक को अनदेखा क्यों किया जाता है। जबकि उसे इतिहास में बड़े सम्मान का दर्जा प्राप्त था। विगत 5000 वर्षों में उसकी जो दुर्दशा, दुर्गति और अवमानना हुई है, शायद दुनिया में किसी अन्य वर्ग की इतनी नहीं हुई होगी। परन्तु आज जहाँ चारों ओर समृद्धि, विकास और मानवाधिकार को पाने की बात चराचर सृष्टि के जीवों हेतु हो रही हो, वहाँ भी इसका कोई वजूद न देखकर दुःख के साथ हैरानी भी होती है कि इस लाचार अनपढ़ जोंकर (हिजड़ा) की ओर मानवता के हाथ कब मदद के लिए उठेगें। 5000 वर्ष पूर्व खोया उसका सम्मान व वजूद कब लौटकर आयेगा।

संसार में जब भी मनुष्य जाति की बात उठती है, तो उसके साथ धर्म की बात उठना स्वभाविक है। क्योंकि धर्म मनुष्य के लिए ही बना है। धर्म की जड़ मनुष्य की उत्पत्ति से पूर्व की मानी गई है। मनुष्य बिना धन के जी सकता है, किन्तु बिना धर्म के नहीं। मनुष्य में, एक ओर जहाँ हिंसा कूट- कूटकर भरी हुई है, वहीं दूसरी ओर अहिंसा भी विद्यमान है। सच और झूठ के इस तराजू का काँटा मन पर कभी दायें तो कभी बायें प्रभाव व दबाव डालता है। संसार का सबसे प्राचीन धर्म सनातन धर्म को माना गया है। इस धर्म के इतिहास में झाँकने पर हिजड़ों की क्या स्थिति पूर्व में थी एवं ईश्वरीय स्वरूप तथा संसार की गुणात्मक रचना में हिजड़ा जाति का क्या अस्तित्व था। इस संदर्भ की जानकारी हेतु हमें अनेकानेक जानकारी मिलती है, परन्तु उसकी मात्रा अल्प है।

सनातन धर्म में त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव को क्रमशः सृष्टि कारचयिता, पालक एवं संहारक कहा गया है। इनमें से शिव के अनेकों स्वरूपों का बखान शास्त्रों में आता है। शिव का प्रतीकात्मक स्वरूप शिवलिंग है। जिसका हिन्दु धर्म में अत्यधिक पूजन होता है। इस शिवलिंग को दो शक्तियों से निर्मित माना गया है। विज्ञान के दृष्टिकोण में यह (+ एवं) धनात्मक एवं ऋणात्मक रूपी ब्रह्माण्डिय विद्युतीय शक्तियों का प्रतीकात्मक स्वरूप है। शिवलिंग स्वरूप सृष्टि में धनात्मक एवं ऋणात्मक रूपों में विभक्त होकर आपस मे क्रियाशील होता है, जिससे सृष्टि का निर्माण एवं संचालन होता है। इससे कारण आदिशिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है। कथा -

शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप में स्त्री एवं पुरुष दोनों के अर्ध भाग को नख से शिख तक एकात्मक रूप से प्रदर्शित किया है। शिव के इस अर्द्धनारीश्वर स्वरूप को सारे हिन्दू पूजते हैं, परन्तु वहीं समाज के भीतर समाज द्वारा ही उत्पन्न एक ऐसी जाति जिसमें इन दोनों गुणों का मेल माना जाता है जिसे हम किन्नर या हिजड़ा कहते हैं, उसे अपमानित किया जाता है। जो अदृश्य है उसका सम्मान, किन्तु जो व्यक्त हैं, उसके अपमान। यह कहाँ कि समझदारी है। यहाँ उनका हिजड़ों से साधुओं की तुलना का अभिप्राय इस बात से है, कि जिस प्रकार हिजड़ा ईश्वरीय रचना की कमी के कारण मानव जाति की उत्पत्ति से वंचित रह जाता है।

हिन्दू धर्म में रामायण का अतिविशिष्ट स्थान रहा है। इसी रामायण ग्रंथ में अनेकों स्थानों पर किन्नर शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है। रामजी के जीवनकाल में अनेक सुअवसरों के उल्लेख में गोस्वामी तुलसीदास ने किन्नर शब्द का प्रयोग किया है।

रामायण के प्रारंभिक काण्ड बालकांड के प्रारंभ में ही तुलसीदास जी ने सभी की प्रार्थना इस प्रकार से की है :-

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्व । बंदऊ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अप सर्व ।। इस चौपाई में देवता, नर, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, दानव इत्यादि के साथ किन्नरों को भी प्रणाम किया गया है।

ऐसे ही जब मकर सक्रांत पर प्रायागराज तीर्थ में मेला लगता है, इस अवसर को रेखांकित करते हुए तुलसीदास कहते हैं -

माघ मकर रवी जब होई।

तिरथ पतिहिं आव सब कोई ।।

देव देनुज किन्नर नर श्रेणी।

सादर मजहि सकल त्रिवेणी ।।

यहाँ स्नान के हेतु सबके साथ किन्नरों का भी आगमन होता था।

तीर्थ स्थानों में सम्मान के साथ ही इनका यज्ञ इत्यादि कायों में भी सादर आमंत्रण होता था।

किन्नर नाग सिद्ध गंधर्वा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्वा ॥

दक्ष प्रजापिता ने जब यज्ञ का आयोजन रखा तो उसमें नाग, सिद्ध, गंधर्व, देवता इनके साथ ही किन्नरों को भी आमंत्रित किया था। इसी प्रकार रामजी के राज्याभिषेक के रुनय कहा है -

नभ ददुंभी बाजहि विपुल गंधर्व किन्नर गावही ।

नाचही उपछरा वृंद परमानंद, सुर मुनि पावही ।

रावण वध होने पर लिखा है -

बरसही सुमन हरषि सूर, बाजहि गगन निसान।

गावहि किन्नर सुबघू, नाचहि चढ़ी विमान ।

इन दोनों खुशियों के अवसर पर अन्य समुदायों के साथ ही किन्नर की भी प्रसन्नता का वर्णन आता है। इन दोनों ही चौपाईयों में इन दोनों ही अवसरों पर विशेष रूप से किन्नरों का उल्लेख मिलता है गंधवों की भाँति ही किन्नर भी उस काल में अपना स्थान रखते थे। तब उनका एक सम्मान जनक स्थान समाज में था, लेकिन आज वह पतित स्थान में जा पहुँचा है।

जब रामजी वनवास में चित्रकुट में रूके थे उस समय- अमर, नाग किन्नर दिसि पाला, चित्रकुट आये तेहि काला।

राम प्रणाम किन्ह सब काहु, मुदित देव लवि लोचन लाहु । अर्थात् देव, नाग, किन्नर एवं दसोदिशाओं के दिग्पाल उस समय चित्रकुट पहुँचे, उन्हें देखकर रामजी ने उन सबको प्रणाम किया, जिसे देख देवता नेत्र का लाभ पाकर आनंदित हुए। इससे इस बात का पता चलता है कि, भगवान राम भी किन्नरों का सम्मान करते थे। उन्हें देवतुल्य मानते थे, परन्तु आज उनके अनुयायी इस बात से कोसों दूर हैं।

इसी प्रकार महाभारत काल में भी इनको समाज अपने बीच समानता के अधिकार से रखता था। महाभारत के अनुसार राजा शान्तनु के पहले पुत्र को गंगा पुत्र भीष्म के नाम से जाना जाता है एवं दो पुत्र गंधर्व कन्या से जन्मे, जिनका नाम चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य था। गंगा पुत्र भीष्म ने अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा कर रखी थी, किन्तु अपने भाईयों से उनका विवाह करवाना चाहा, किन्तु उन तीन बहनों में से अंबा नाम की राजकुमारी ने उस विवाह से इंकार कर दिया, क्योंकि चह शल्य राजा से प्रेम करती थी। इस बात की जानकारी जब भीष्म को हुई, तो उन्होनें अंबा को उस राजा के पास भिजवा दिया, किन्तु राजा शल्य ने उससे विवाह करने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि वह किसी के द्वारा जीती हुई थी, इसलिए उससे वह विवाह करने में अपना अपमान महसूस करते थे। तब अंबा ने भीष्म से कहा कि मुझसे विवाह करो, क्योंकि तुम मुझे जीत कर लाये हो, परन्तु भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा का हवाला देकर विवाह से मना कर दिया। इस बात से क्रोधित होकर अंबा ने प्रतिज्ञा की, कि मैं तेरी इच्छा मृत्यु वरदान के बावजूद तेरी मृत्यु का कारण बनूंगी। और सभी इस बात को जानते हैं कि महाभारत के समय भीष्म की मृत्यु का कारण श्रीखंडी नामक हिजड़ा बना वास्तव में श्रीखंड़ी हिजड़ा राजकुमारी अंबा का पुनः जन्म था। इसी हिजड़ें लेकर अर्जुन ने भीष्म का वध किया था क्योंकि भीष्म स्त्री पर वार नही कर सकते थे। इस कथा से यह पता चलता है कि द्वापर युग में श्रीखंड़ी हिजडा रूप में होकर भी राजसत्ता का भागीदार था। एवं अन्य राजाओं की भाँति ही उसे योद्धा के रूप में पूर्ण सम्मान प्राप्त था। इसी प्रकार से पाण्डवों के 13 वर्ष के वनवास काल में एक वर्ष के अज्ञातवास के समय अर्जुन श्रापवश बृहनलला नामक के हिजड़ें रूप में रहें, जिन्हें राजा विराट के यहाँ राजकुमारी को संगीत की शिक्षा देने का कार्य सौंपा था। इस बात से भी स्पष्ट होता है कि, हिजड़ों को उस काल में समाज में कला एवं अन्य सभी सामाजिक पहलुओं में समान अधिकार था।