हमारा परम् धर्म सेवाओ की सेवा

सेवा का भाव प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। सनातन धर्म में तो सेवा को धर्म का सार बताया गया है। प्राणी मात्र और प्रकृति की सेवा का भाव सनातन धर्म की पूजा पद्धति और मान्यताओं में समाहित है।

पर्यावरण प्रदूषण की समस्या आज इन्हीं पंचमहाभूतों की उपेक्षा एवं असन्तुलन का कारण है. इन पंचमहाभूतों की उपेक्षा जहां प्राकृतिक अथवा भौतिक पर्यावरण के लिए घातक बना, वहीं भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता में तीन तत्व और सम्मिलित किये- जिसे मन, बुद्धि एवं अहंकार नाम दिया गया. ये तीन तत्व हमारे मानसिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक प्रदूषण को प्रभावित करते हैं.

कहा गया है– 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' अर्थात् जो इस पिण्ड में वही व्यापक रूप में ब्रह्माण्ड में है. जीवों में इन पांचों तत्वों के असन्तुलन से शारीरिक व्याधिंया जन्म लेती है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति में जब असन्तुलन होता है, तो प्राकृतिक आपदाऐं घटित होती हैं, जिन्हें हम दैवीय आपदा अथवा दैव प्रकोप मानकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं. हकीकत तो ये हैं कि प्राकृतिक आपदाऐं सारी की सारी मानव जनित है.

यजुर्वेद का एक श्लोक हैः-

"ऊँ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षॅ शान्तिः, पृथ्वी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः, वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्व शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि. ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः .

(अर्थात् शान्ति कीजिए प्र्रभु जल, थल और गगन में, अन्तरिक्ष में, अग्नि, पवन, औषधि, वन, उपवन में सकल विश्व में, अवचेतन में, जीव मात्र के तन, मन और जगत में कण-कण में शांति हो) प्रायः हर धार्मिक अनुष्ठान के प्रारम्भ में इस शान्ति पाठ से शुरुआत होती है. हम मंत्र रूप में इसका उच्चारण कर अथवा पुरोहित से करवाकर शान्ति की कामना तो करते हैं, लेकिन व्यवहार में प्रकृति के संरक्षण में इसके उलट हमारी गतिविधियां रहती हैं. सच तो ये है कि देव भी आपकी सहायता तभी कर सकता है, जब आप स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयत्नशील हों.

वायु को वेदों में प्राण कहा गया है, ऑक्सीजन को हम प्राणवायु कहते हैं . इसी तरह इस पिण्ड में भी प्राण, अपान, व्यान उदान और समान वायु प्रवाहित होती है . वायु जीवमात्र के जीवन का आधार है . इसी वायु को शुद्धीकरण के लिए जहां सनातन संस्कृति में होम -यज्ञ की विधि बताई है, वहीं प्राणवायु के मूल स्रोत वनस्पतियों के संरक्षण की बात कही गई है .

बात करते हैं उन पंचमहाभूतों की , जो हमारे तथा प्रकृति की सेहत के लिए उपयोगी हैं . वायु को वेदों में प्राण कहा गया है, ऑक्सीजन को हम प्राणवायु कहते हैं . इसी तरह इस पिण्ड में भी प्राण, अपान, व्यान उदान और समान वायु प्रवाहित होती है . वायु जीवमात्र के जीवन का आधार है . इसी वायु को शुद्धीकरण के लिए जहां सनातन संस्कृति में होम -यज्ञ की विधि बताई है, वहीं प्राणवायु के मूल स्रोत वनस्पतियों के संरक्षण की बात कही गई है . विज्ञान तो पेड़- पौधों में जीवन की बात आज करता है , लेकिन हमारे मनीषी तो आदि काल से इन्हें सजीव मानकर चले हैं . वृक्ष को काटना पाप मानकर इसे निषिद्ध ठहराया गया है . सबसे उपयोगी वृक्ष पीपल, बरगद व बेल के पेड़ को काटना महापाप कहा गया है, जाहिर है कि पीपल सबसे अधिक प्राणवायु वातावरण में उत्सर्जित करता है .

अग्नि पुराण तो यहां तक कहता है- "यदि कोई व्यक्ति अपने वंश का विस्तार एवं धन और सुख में वृद्धि की कामना करता है, तो वह फल -फूल वाले वृक्ष को न काटे.'' इसी प्रकार पीपल की टहनी तक को सन्तान वाले व्यक्ति को तोड़ना वर्जित कहा गया है.

भगवान श्रीकृष्ण ने तो श्रीमद्भगवतगीता में संसार में अपनी व्यापकता को बताते हुए, यहां तक कह डाला कि वृक्षों में पीपल वृक्ष मैं हूँ इस प्रकार पीपल के वृक्ष के प्रति जनास्था को जोड़कर एक प्रकार से इसके संरक्षण की बात कही गयी है. इसी तरह मानवोपयोगी विभिन्न वनस्पतियों में ईश्वर का वास बताकर उनके संरक्षण की ओर ईशारा किया गया है . अग्नि पुराण तो यहां तक कहता है- "यदि कोई व्यक्ति अपने वंश का विस्तार एवं धन और सुख में वृद्धि की कामना करता है, तो वह फल -फूल वाले वृक्ष को न काटे.'' इसी प्रकार पीपल की टहनी तक को सन्तान वाले व्यक्ति को तोड़ना वर्जित कहा गया है. सनातन धर्म में किसी की मृत्यु होने पर मृतक की याद में पीपल के वृक्ष रोपने की परम्परा है, यह एक प्रकार से मृत व्यक्ति द्वारा अपने जीवनकाल में प्रकृति से ली गयी प्राणवायु का कर्ज चुकाने का एक उपक्रम माना जा सकता है. आज भी मृतकों की याद में उनकी विधवाओं द्वारा संरक्षित पीपल वृक्षों के नाम पर ही गांवों के नाम यथा- जीतुवा पीपल, खिमुवा पीपल आदि पाये जाते हैं. यह बात अलग है कि आज लकीर के फकीर बन चुके लोग प्रतीकात्मक रूप में पीपल की टहनी रोपकर, पीपलपानी के दिन ही अपना फर्ज भर निभा लेते हैं.

इस पृथ्वी ने प्रत्येक जीव को उसकी प्रकृति के अनुरूप भोज्य वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में प्रदान की हैं, यदि आवश्यकता के अनुरूप प्रत्येक जीव प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का उपयोग करे तो उसका भण्डार अक्षय है, लेकिन समस्या तब आ जाती है, जब मनुष्य अपने आने वाले समय और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अन्धाधुन्ध संग्रह करने लगता है.

अथर्ववेद में कहा गया है 'माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः' अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं. धरती एक वनस्पतियों से आच्छादित मिट्टी व पत्थरों का समूह भर नहीं है. पृथ्वी रत्न गर्भा है. रत्न से तात्पर्य बहुमूल्य धातुओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पृथ्वी हमें वह सब देती है, जो जीव मात्र के पोषण के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य है. जो सकल भोग्य पदार्थों को पैदा कर पोषण करती है, उसे माता ही तो कहेंगे, इसलिए पृथ्वी को माता तुल्य माना गया है. इस पृथ्वी ने प्रत्येक जीव को उसकी प्रकृति के अनुरूप भोज्य वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में प्रदान की हैं

ईश्वर को तो किसी ने देखा नहीं है, लेकिन जो पंचमहाभूत प्रत्यक्ष में हैं, उनकी उपेक्षा करना कहां की बुद्धिमानी है. यह आस्था का विषय है कि आप अपने आराध्य की प्रार्थना, आराधना, उपासना करें, लेकिन इन पांच तत्वों के संरक्षण की उपेक्षा के बिना आपकी उपासना अथवा आराधना जनकल्याणकारी नहीं हो सकती.

बुद्धिमानी इसी में हैं कि हम प्रकृति के इन पंचमहाभूतें को देवतुल्य सम्मान देकर सभी तत्वों में सन्तुलन स्थापित करने में सहयोगी बनें. एक के भी असन्तुलित होने से पूरी सृष्टि असन्तुलित होगी और "द्यौः शान्तिः........'' की प्रार्थना हमारी धरी की धरी रह जायेगी. ईश्वर को तो किसी ने देखा नहीं है, लेकिन जो पंचमहाभूत प्रत्यक्ष में हैं, उनकी उपेक्षा करना कहां की बुद्धिमानी है. यह आस्था का विषय है कि आप अपने आराध्य की प्रार्थना, आराधना, उपासना करें, लेकिन इन पांच तत्वों के संरक्षण की उपेक्षा के बिना आपकी उपासना अथवा आराधना जनकल्याणकारी नहीं हो सकती.

सेवा का भाव प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। सनातन धर्म में तो सेवा को धर्म का सार बताया गया है। प्राणी मात्र और प्रकृति की सेवा का भाव सनातन धर्म की पूजा पद्धति और मान्यताओं में समाहित है। सेवा के भी कई श्रेष्ठ रूप वर्णित हैं। इनमें मानव की सेवा माधव (भगवान) की सेवा के समतुल्य मानी गई है। कहा जाता है मानवता की सेवा करने वाले हाथ उतने ही धन्य होते हैं जितने परमात्मा की प्रार्थना करने वाले अधर। नि:संदेह सेवा मानव की ऐसी सवरेत्तम भावना है, जो उसे पूर्णता प्रदान करती है। सेवाभाव ही मानव जीवन का वास्तविक सौंदर्य और श्रृंगार है। सनातन धर्म में कर्म की प्रधानता पर बल दिया जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। इसके अलावा व्यक्ति के कर्मों का प्रभाव प्रकृति पर भी पड़ता है अतः मानव जाति को प्रकृति तथा उसके विभिन्न जीवों की रक्षा करना चाहिये।